विंध्य के सियासी चेहरों पर लगा गया जाति का ठप्पा

विंध्य में जातीय समीकरण से ही तय होती है जीत-हार, कई सीटों पर इसका सीधा असर

विंध्य के सियासी चेहरों पर लगा गया जाति का ठप्पा

विंध्य  @खबरिया. विन्ध्य की सियासत और जातिवाद का चोली-दामन का साथ है। यहां नेताओं का भविष्य ही जातीय समीकरण से तय होते हैं। कई सीटों पर तो इसका सीधा असर है। 70 के दशक तक यहां की राजनीति में जातिवाद की भूमिका उतनी नहीं थी, लेकिन 80 के दशक से राजनीति में जातीय समीकरणों का प्रादुर्भाव होना शुरू हुआ जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए यह आज अपने चरम पर पहुंच चुका है। जातीय समीकरण की महत्ता इसी से पता चलती है कि जातीयता के आधार पर राजनीति में स्थापित होने वाली पार्टी बसपा ने पहली सीट इसी क्षेत्र से जीती। इसी जातीयता के चलते कई ऐसे नेता जो न केवल विन्ध्य बल्कि मध्यप्रदेश की राजनीति में अपना परचम फहराते नजर आए।

                                                                 

                                                   

अर्जुन और श्रीनिवास ने बोई थी फसल

अर्जुन सिंह, श्रीनिवास तिवारी

विन्ध्य में जातीय समीकरणों के जरिए राजनीति के शतरंज में शह और मात का खेल करने वाले पुराने प्रमुख चेहरों में अगर देखें तो पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के नाम शुमार हैं। अर्जुन को क्षत्रिय वर्ग का प्रबल समर्थन मिलता था तो श्री निवास तिवारी ब्राह्मण वर्ग का नेतृत्व करते नजर आते थे। ऐसा भी नहीं था कि इन्होंने अन्य वर्ग के लोगों के लिए अपने दरवाजे बंद कर रखे थे। सजातियों से इतर भी ये दोनों नेता उतने ही लोकप्रिय थे, लेकिन इनके राजनीतिक इंजन का फ्यूल इनके सजातीय वर्ग से ही मिलना माना जाता था।

सुखलाल-सिद्धार्थ ने दलितों के बीच जमाया पांव

अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के बाद कुछ समय तक जातीय समीकरणों के खेल तो राजनीति में होते रहे, लेकिन जाति को लेकर कोई बड़ा चेहरा तैयार नहीं हो सका। यह तब तैयार हुआ जब अर्जुन सिंह को हराकर सुखलाल कुशवाहा राजनीति की मूल धारा में चमक उठे। सुखलाल दलित वर्ग के बड़े नेता बनकर उभरे। विंध्य में दलित वर्ग ने उन्हें अपना नेता तो माना ही, वे कुशवाहा समाज के मप्र के मान्य नेता बनते चले गए। तब तक बेटे सिद्धार्थ कुशवाहा ने भी राजनीति में अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे। आज सिद्धार्थ भी कुशवाहा समाज के मान्य नेता के तौर पा जाने जाते हैं।

रामखेलावन ने पार्टी बदली, जातिवाद का लेवल नहीं

अमरपाटन से विधायक रामखेलावन पटेल ने बसपा की राजनीति करने के बाद भाजपा में कदम तो रखा लेकिन यहां आने के बाद भी उन्हें जातिवादी राजनीति से मुक्ति नहीं मिल सकी। आज की स्थिति में उन पर सजातीय वर्ग की राजनीति करने की मुहर लग चुकी है। विंध्य में अगर सबसे ज्यादा जातिवादी राजनीति करने का आरोप अगर किसी जनप्रतिनिधि पर लगा है तो वे रामखेलावन ही हैं। हालांकि उनका दावा रहता है कि ऐसे आरोप उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लगाते हैं, जबकि वे ऐसे नहीं है। उनके सर्वहारा वर्ग से ताल्लुकात हैं।

गणेश पर भी लगी मुहर एक बैठक से शुरू हुई कहानी

सांसद गणेश सिंह की राजनीतिक शुरुआत जातीय समीकरणों पर बहुत प्रभावी नहीं रही। लेकिन, जैसे-जैसे वो सियासी धरा में अपना कद बढ़ाते गए, उन्हें जातीय समीकरणों के नफा-नुकसान भी करीब से देखने को मिले। धीरे-धीरे उन्होंने भी जातीय समीकरणों का इस्तेमाल करना शुरू किया। उसी दौरान एक विवाद के बाद बैठक में जिस तरीके से सजातीय लोगों के पक्ष में बात रखी थी, उसके बाद से वे कुर्मी समाज की राजनीति के बड़े चेहरे के रूप में देखे जाने लगे। हालांकि वे सभी वर्गों पर समान रूप से अपनी पकड़ और भाव रखते हैं।

राजेंद्र बने श्रीनिवास के उत्तराधिकारी

रीवा में श्रीनिवास तिवारी के राजनीतिक सूर्यास्त के साथ ही जो नया सूर्योदय हुआ वह था राजेंद्र शुक्ला का। एक पढ़ा लिखा विजनरी नेतृत्व लोगों ने उनमें देखा। उन्होंने विकास की जो शुरुआत रीवा में की तो रीवा को पिछड़े जिले से बाहर लाकर एक नए विकसित रीवा के रूप में खड़ा कर दिया। लेकिन, इसके साथ-साथ सामान्य तौर पर अपने आप उन पर ब्राह्मण राजनीति का ठप्पा लगने लगा। अब वे विन्ध्य के कद्दावर सवर्ण नेता के रूप में सर्वमान्य हो चुके हैं।

मजदूरों के नेता से नारायण सवर्ण नेता बन गए

मजदूरों के आंदोलन से राजनीति शुरू करने वाले नारायण त्रिपाठी की शुरुआती राजनीति समाजवादी रही। जब सतना जिले में पटेल और कुशवाहा राजनीति की जड़ें गहरी होने लगीं तब भी सामान्य वर्ग से जिले के नेताओं ने जाति को लेकर निरपेक्षता के सिद्धांत को प्राथमिकता में रखा। तब नारायण त्रिपाठी ने सवर्ण के लिए गाहे बगाहे आगे आने लगे। इसके बाद से न केवल ब्राह्मण वर्ग बल्कि सवर्ण वर्ग उनमें नेतृत्व खोजने लगा और आज वे इस वर्ग के नेता के रूप में मान्य होने लगे हैं।

क्षत्रिय वर्ग के नेता बन गए अजय सिंह राहुल 

अर्जुन सिंह की राजनीतिक विरासत संभालने का काम उनके बेटे अजय सिंह ने किया। इनकी राजनीति में सीधे तौर पर जातीय समीकरण नहीं दिखते हैं और उनका विंध्य में दखल हर वर्ग में है, लेकिन जाने अनजाने ही सही वे क्षत्रिय वर्ग के नेता के तौर पर प्रचारित हो चुके हैं।

कमलेश्वर - प्रदीप पर लगी छाप 

                     

जातीय समीकरणों को लेकर खुद को हाशिये पर रखने वाले कमलेश्वर पटेल और प्रदीप पटेल पर विन्ध्य की जातीय राजनीति ने अपने आप जातिवादी राजनीति का ठप्पा लगा दिया है। हालांकि वे अपनी जातियों को लेकर प्रभावी भूमिका में नजर नहीं आते हैं लेकिन उनके सजातीय लोग उनके क्षेत्रों में उन्हें अपनी जाति के नेता के रूप में देखते हैं।